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वृद्ध इमरती विश्वकर्मा की उंगलियों में कठपुतलियों की बसती है जान

कांधे पर झोला और हाथ में कठपुतली थामे इमरती विश्वकर्मा बनारस की गलियों में घूमते रहते है। देखवार मिल जाए तो कठपुतली नाच लेगी और खुद के पेट के लिए रोटी का जुगाड़ हो जाएगा।

वृद्ध इमरती की उंगलियों में कठपुतलियों की जान बसती है। 72 साल के इमरती जब अपनी उंगलियों को नचाते है तो कठपुतलियां क्या खूब थिरकती नाचती हैं। इमरती की बातों से लोक कला की मरती दुनिया का सच सामने आता है।

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इमरती की उंगलियों से कठपुतलियां खूब नाचती हैं लेकिन जब इमरती नहीं होंगे तो क्या तब भी कठपुतलियां नाचेंगी? इमरती बोल उठते हैं- ”हम जब गुजर जाएंगे तो कोई और इसे कर नहीं सकता क्यों कि इस हुनर को सीखने में बच्चे लजाते हैं, वो कठपुतलियों को छूना नहीं चाहते”।

मिर्जापुर के रहने वाले इमरती पिछले 50 सालों सालों से कठपुतलियों का करतब दिखाते आ रहे है। पहले लोग बुलाकर देखते थे। अब वो लोगों के पास जाकर कठपुतली नाच देखने की गुजारिश करते हैं। इमरती कहते हैं- एक जमाना था कि हम बुलवाए जाते थे और आज हम लोगों तक जाकर उनकी खुशामद करते हैं कि शायद देख लें साहब।

दौर था कि रात में सैकड़ों लोग जुटकर कठपुतली का खेल देखते थे, लेकिन अब देखते नहीं। 

मोबाइल हाथों में थामे बचपन को कठपुतलियों में दिलचस्पी नहीं तो उनके बड़ों को इतनी फुर्सत नहीं की वो अपने नौनिहालों की उंगली पकड़कर लोककला की दुनिया तक ले जाएं जहां कोई इमरती दादू उन्हें रंगीन काठ की पुतलियों के जरिए उनके बचपन को लोककला के रस से भरने के साथ ही सामूहिकता से जोड़ दें।

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दिन में तीन-चार सौ रुपये तो किसी दिन कुछ न मिलने पर ऐसे ही गुज़ार देने वाले इमरती जब ये कहते हैं हमारे बाद कोई और नहीं इसको करेगा तो उनका अनबोला दर्द कह उठता है- सरकार कभी हमारे तरफ भी एक नजर…

हर बरस 21 मार्च को मनाये जाने वाले कठपुतली दिवस पर सोशल मीडिया पर संदेश से ट्रैफिक जाम करने वालों, जब कभी कोई इमरती विश्वकर्मा आपके शहर की गलियों या सड़क से कांधे पर झोला और हाथ में कठपुतली लेकर गुजरता दिखे तो उनका हाथ पकड़ कर रोक लें, कठपुतलियां नाच उठेंगी। लोककलाओं की धड़कनें चलती रहेगी। इमरती जैसे बचे हुए लोगों की हंसीखुशी और रोजगार का प्रबंधन हमको आपको करना है। ऐसा न हुआ तो इमरती का कहा सच हो जाएगा- हम जो गुज़र गए तो फिर कोई नहीं…!

स्रोत - Bhadas4Media

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