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घुमंतू जनजातियों को विलुप्त होने से बचाने के लिए यदि अब भी नहीं जागे केंद्र और राज्य, तो हम एक संस्कृति खो देंगे

 "भारत मेरा देश है और सभी भारतीय मेरे भाई-बहन हैं"

इस पंक्ति के क्या मायने हैं, इससे हम सभी भली-भाँति वाकिफ हैं। यह पंक्ति यही कहती है कि भारत अपनी धर्मनिरपेक्षता और विविधता में एकता का प्रतीक है। हमें सिखाया गया है कि हमारा भारतीय संविधान सभी को मतदान, शिक्षा, धर्म आदि का समान अधिकार देता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं? यदि आपका जवाब हाँ है, तो खानाबदोश लोगों का क्या? क्या आपको लगता है कि उन्हें किसी अन्य भारतीय नागरिकों के समान अवसर मिल रहे हैं? लेकिन, कहीं से कहीं तक ऐसा नहीं दिखता है।



नेताओं, सरकार और यहाँ तक कि आम जनता द्वारा बार-बार खानाबदोश और गैर-अधिसूचित जनजातियों की उपेक्षा की जाती है। भले ही उनके लिए कुछ प्रावधान सुनिश्चित किए गए हों, लेकिन क्या ये काफी हैं? कुछ शब्द लिख तो दिए जाते हैं, लेकिन फिर वो कागजों पर पड़ी धूल के नीचे दबकर रह जाते हैं। जब किसी क्षेत्र को शहरी विकास से जोड़ा जाता है, तो यह मानवाधिकार के दृष्टिकोण और संवैधानिक नैतिकता की भावना से किया जाता है। दुर्भाग्य से, हर कोई यह अनुभव करने जितना पर्याप्त भाग्यशाली नहीं है। खानाबदोश और गैर-अधिसूचित जनजातियाँ, जो इस विकास में शारीरिक श्रम के मामले में सबसे अधिक और महत्वपूर्ण योगदान देती हैं, उन्हें ही इसके लाभों से दूर रखा जाता है। अक्सर शहरवासियों द्वारा उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है, जैसे कि वे इंसान ही न हों।

खानाबदोश जनजातियों का बहिष्कार करने का मुद्दा नया नहीं है। वे दशकों से सरकार और समाज दोनों की मार झेलते आ रहे हैं। इन सबसे परे वे आज तक अपने परिवार का पेट पालने के लिए दर-दर भटकते दिखाई पड़ते हैं। जीवन यापन करने के लिए वे हर तरह का परिश्रम कर रहे हैं, आखिर करे भी तो क्या? मजबूरियों की बेड़ियाँ पहने हुए हैं। हमें बहुत अधिक समय इसे दोहराते हुए गवाँ दिया है। बहुत देर हो चुकी है, अब यदि बात चरम पर पहुँची, तो यकीन मानिए, हम भारत की प्राचीन संस्कृतियों में से सबसे महत्वपूर्ण को खो देंगे। केंद्रीय और स्थानीय सरकारें जितनी जल्दी खानाबदोश जनजातियों के बहिष्कार पर विराम लगाने का काम शुरू करेंगी, उतनी ही जल्दी वे समाज में अपने समावेश और भागीदारी की दिशा में काम कर सकेंगी।

इसकी शुरुआत करने के लिए, सरकारों को चाहिए कि वे खानाबदोश समुदायों के पारंपरिक भूमि व संसाधन उपयोग और प्रबंधन प्रथाओं को पहचाने। और न सिर्फ उनका सम्मान करें, बल्कि उनके भूमि और संसाधन अधिकारों को सुरक्षित करने की दिशा में कार्य भी करें। इसमें घुमंतू जनजातियों के भूमि अधिकारों को पहचानने और उन्हें अपने संसाधनों के प्रबंधन व सुरक्षा के लिए सहायता प्रदान करने हेतु कानूनी ढाँचे के निर्माण को भी शामिल किया जा सकता है। इसके अलावा खानाबदोश समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, जल और स्वच्छता जैसी बुनियादी सेवाएँ भी प्रदान की जा सकती हैं। इसके लिए इन समुदायों की गतिशीलता को ध्यान में रखने वाले नवीन दृष्टिकोणों, जैसे- मोबाइल, स्कूलों और हेल्थ क्लीनिक्स पर भी विचार किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त, सरकारों को क्रेडिट, बाज़ार और प्रशिक्षण के अवसर प्रदान करके खानाबदोश समुदायों के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण पर ध्यान देने की भी जरुरत है। इसमें पारंपरिक कौशल और शिल्प को बढ़ावा देना और खानाबदोशों के लिए स्थानीय और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं में भाग लेने के अवसर पैदा करना शामिल हो सकता है। कुल मिलाकर, सरकारों के लिए खानाबदोश समुदायों की सांस्कृतिक और विरासत पहचान और उनकी सांस्कृतिक परंपराओं को संरक्षित करने व बढ़ावा देने के प्रयासों का समर्थन करना महत्वपूर्ण है। इसमें सांस्कृतिक केंद्र और संग्रहालय बनाना, भाषा संरक्षण कार्यक्रमों का समर्थन करना और सांस्कृतिक उत्सवों और कार्यक्रमों में खानाबदोशों की भागीदारी को बढ़ावा देना शामिल हो सकता है।

इन समुदायों की अनूठी जरूरतों और चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए खानाबदोश जनजातियों के बहिष्कार को दरकिनार करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। स्वयं खानाबदोश समुदायों की भागीदारी के साथ-साथ सरकारी एजेंसियों, नागरिक समाज संगठनों और निजी क्षेत्र को सहयोग के तौर पर आगे आना होगा। देश के नागरिक होने के नाते हमारे खानाबदोश भाई-बहनों को बहिष्कार की बंदिशों से बाहर लाना और समाज में उन्हें उनका उचित स्थान दिलाना हमारी जिम्मेदारी है।

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