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वट सावित्री व्रत कथा एवं विधि

हिंदू कलैंडर के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन वट सावित्री व्रत मनाया जाता है। जो इस साल यानि 2021 में गुरुवार,10 जून 2021 को मनाया जाएगा।

यह सौभाग्यवती स्त्रियों का प्रमुख पर्व है, इस व्रत को करने का विधान त्रयोदशी से पूर्णिमा अथवा अमावस्या तक है। उत्तर भारत, मध्य भारत सहित कई जगहों पर जहां वट सावित्री  पर्व ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है, वहीं खासकर पश्चिम भारत के गुजरात और महाराष्ट्र राज्य में वट-सावित्री ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।


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 वट सावित्री व्रत मुहूर्त 2021 

ज्येष्ठ अमावस्या तिथि 09 जून 2021 को दोपहर 01 बजकर 57 मिनट से शुरू हो जाएगी। जो कि 10 जून 2021 को शाम 04 बजकर 22 मिनट तक होगी। वट सावित्री व्रत  का पारण 11 जून 2021, दिन शुक्रवार को किया जाएगा।

 इस समय रहेगा सूर्य ग्रहण... 

2021 का पहला Surya Grahan 10 जून 2021 को लगेगा। जो 13:42 बजे से शुरु होकर 18:41 बजे तक रहेगा। इसका मुख्य रूप से उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भाग, यूरोप और एशिया में आंशिक व उत्तरी कनाडा, ग्रीनलैंड और रुस में दिखाई देगा।

यह ग्रहण भारत में सिर्फ अरुणाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में कुछ हिस्सों में दिखाई देगा। बाकी किसी भी राज्य में इस ग्रहण का कोई प्रभाव नहीं रहेगा। ऐसे में इसका सूतक  भी कुछ जगह ही मान्य होगा।

 मान्यता के अनुसार वट-सावित्री अमावस्या के दिन ही, सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी। हिन्दू धर्म में वट सावित्री अमावस्या सौभाग्यवती स्त्रियों का महत्वपूर्ण पर्व है। इस व्रत को ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक करने का विधान है।

 वट सावित्री के दिन वट (बरगद, बड़) वृक्ष का पूजन किया जाता है। इस व्रत में बरगद वृक्ष  के चारों ओर घूमकर सौभाग्यवती स्त्रियां रक्षा सूत्र बांधकर पति की लंबी आयु की कामना करती हैं। इस व्रत को स्त्रियां अखण्ड सौभाग्यवती रहने की मंगल कामना से करती हैं। इस दिन सत्यवान-सावित्री की यमराज सहित पूजा की जाती है।

लेकिन इस बार Corona Pandemic के बीच घर से निकलना परेशानी का कारण बन सकता है, एक ऐसा तरीका भी बता रहे हैं, जिसके लिए घर से बाहर निकलने की जरूरत नहीं पड़ती, और मान्यता के अनुसार इस विधि से भी पूरा आशीर्वाद प्राप्त होता है।

माना जाता है कि इस व्रत को रखने वाली स्त्रियों का सुहाग अचल होता है। वट सावित्री व्रत करने से पति दीर्घायु और परिवार में सुख शांति आती है। पुराणों के अनुसार वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से छीन लिया था।

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 सावित्री को अर्घ्य देने का श्लोक -

अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।

पुत्रान्‌ पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तुते।।

यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।

तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा।।

और...

मूलतो ब्रह्म रूपाय, मध्य रूपाय विष्णुवे।

अग्रतस्य वरूपाय वृक्षराज नमोस्तुते।।

 इस संकल्प को लेकर उपवास रखें -

मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं

सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।

 व्रत की विधि ...

इस दिन स्त्रियां  सुबह सवेरे स्नान के दौरान केशों को भी धोती है। इसके बाद बांस की टोकरी में रेत भरकर ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना करनी चाहिए। फिर ब्रह्मा के वाम पार्श्व में सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी तरह दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की स्थापना करके टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे ले जाकर रखना चाहिए।


ब्रह्मा और सावित्री के पूजन के बाद सावित्री और सत्यवान की पूजा करके बड़ की जड़ में पानी देना चाहिए। जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, गुड़, फूल और धूप-दीप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है। जल से वट वृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए।

बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट-सावित्री की कथा सुननी चाहिए। भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, उस पर रुपए रखकर सास को चरणस्पर्श करना चाहिए। यदि सास दूर हो तो बायना बनाकर वहां भेज देना चाहिए।

वट और सावित्री की पूजा के बाद हर दिन पान, सिंदूर व कुकुम से सुवासिनी स्त्री के पूजन का विधान है। पूजा की समाप्ति पर व्रत के फलदायक होने के लक्ष्य से ब्राह्मणों को वस्त्र और फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करनी चाहिए।


: करोना काल में ऐसे करें घर में ही वट वृक्ष की पूजा आसपास बड़ का कोई पेड़ न हो तो भी निराश न हों 

पंडित चंद्रशेखर शर्मा  के अनुसार यदि आपके आसपास बड़ का कोई पेड़ न हो तो निराश न हों, कहीं से एक टहनी मंगा लें या दीवार पर वट वृक्ष को अंकित करके पूजा कर लें। पूजा-आराधना में मुख्य महत्व भावना, श्रद्धा,विश्वास और आस्था का है। अत: आप दीवार पर बड़ के पेड़ को अंकित करें या वास्तविक वट वृक्ष का पूजन, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।

यह व्रत स्त्रियों द्वारा अखंड सौभाग्यवाती रहने की कामना से किया जाता है। इस दिन सुहागिन नारियां नहा धोकर पूर्ण श्रृंगार करके और सुंदर वस्त्राभूषण धारण कर प्राय: सामूहिक रूप में पूजा करने जाती हैं और पूजन के लिए लाई गईं सभी सामग्री चढ़ाई जाती है।

इस दिन स्वर्ण या मिट्टी से सावित्री, सत्यवान और भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बनाकर धूप,चंदन, दीपक, फल, रोली, केसर से पूजन करना चाहिए और सावित्री-सत्यवान की कथा सुननी चाहिए।

: वट सावित्री कथा- 

बहुत समय पहले मद्र देश में अश्वपति नामक एक परम ज्ञानी राजा थे। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए पत्नी सहित सावित्री देवी का विधिपूर्वक व्रत औरपूजन करके पिता और पति दोनों के घरों को श्रृंगार वाली पुत्री होने का वर प्राप्त किया। इस पूजा से उनके यहां पुत्री के रूप में सर्वगुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ।


सावित्री शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति बढ़ती युवा हो गई। जब वह विवाह योग्य हुई तो राजा ने उसे स्वयं अपना वर चुनने को कहा। अश्वपति ने अपने मंत्री के साथ सावित्री को अपने पति का चयन करने के लिए भेज दिया।

एक दिन देवर्षि नारद राजा अश्वपति के यहां आए हुए थे, तभी सावित्री अपने मन अनुकूल वर का चयन करके लौटी। उसने नारद जी को आदरपूर्वक प्रणाम किया। नारद जी के पूछने पर सावित्री ने कहा- 'राजा द्युमत्सेन, जिनका राज्य हर लिया गया है, जो अंधे होकर पत्नी सहित वनो की खाक छानते फिर रहे हैं, उन्हीं के एकलौते आज्ञाकारी पुत्र सत्यवान को मैंने अपने पतिरुप में वरण कर लिया है।'

तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले नारद जी ने सत्यवान और सावित्री के ग्रहों की गणना करके उसके भूत, वर्तमान व भविष्य को देखकर राजा से कहा- 'राजन! तुम्हारी कन्या ने नि:संदेह भारी परिश्रम किया है।

सत्यवान गुणी व धर्मात्मा है। वह सावित्री के लिए सब प्रकार से योग्य है परंतु एक भारी दोष है। वह अल्पायु है और एक वर्ष के पश्चात सत्यवान परलोक सिधार जाएगा।'

नारद जी की ऐसी अपशकुन की भविष्यवाणी सुनकर राजा अश्वपति ने अपनी पुत्री को कोई अन्य वर खोजने को कहा। पर पतिव्रता और एकनिष्ठ आस्था वाली सावित्री ने उत्तर दिया-'पिताश्री! आर्य कन्याएं जीवन में एक ही बार अपने पति का चयन करती है।

मैंने भी सत्यवान को मन से पति स्वीकार कर लिया, अब वह चाहे अल्पायु हो या दीर्घायु, मैं किसी अन्य को अपने ह्दय में स्थान नहीं दे सकती।

सावित्री बोली-'पिताजी! आर्य कन्याएं अपना पति एक बार ही वरण करती हैं। राजा एक बार ही आज्ञा देता है, पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते है और कन्यादान भी एक बार ही किया जाता है। अब चाहे जो हो सत्यवान ही मेरा पति होगा।'

सावित्री के ऐसे दृढ़ वचन सुनकर राजा अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञात कर लिया था। सावित्री अपने पति और सास-ससुर की सेवा करती हुई वन मे रहने लगी।

समय बीतता गया। आखिर सावित्री 12वर्ष की हो गई। नारद जी का वचन सावित्री को दिन-प्रतिदिन अधीर करता रहा। आखिर जब नारदजी के कथन के अनुसार सावित्री के पति के जीवन के 3 दिन बचे, तभी से सावित्री उपवास करने लगी।

नारद द्वारा बताए गई निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। प्रति दिन की भांति उस दिन जब सत्यवान लकड़िया काटने के लिए चला तो सास ससुर से आज्ञा लेकर सावित्री भी उसके साथ वन में चल दी।

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जंगल में सत्यवान ने सावित्री को मीठे-मीठे फल लाकर दिए और स्वयं एक वृक्ष पर लकड़ियां काटने के लिए चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय दर्द होने लगा। वह व्याकुल हो गया और वृक्ष से नीचे उतर आया।

सावित्री ने उसे पास के बड़ के वृक्ष के नीचे लिटाकर सिर अपनी जांघ पर रख लिया। सावित्री का ह्दय कांप रहा था। सावित्री अपना भविष्य समझ गई। उसी समय दक्षिण दिशा से यमराज को आते देखा । यमराज और उनके दूत धर्मराज सत्यवान के जीव को जब लेकर चल दिए तो सावित्री ने भी यमराज का पीडा करना शुरु कर दिया।

सावित्री को पीछे आती हुई देखकर यमराज ने उसे समझाकर वापस लौट जाने के लिए कहा परंतु सावित्री ने कहा - 'यमराज! पत्नी के पत्नित्व की सार्थकता इसी मे है कि वह उसका छाया के समान अनुसरण करे। पति के पीछे जाना ही स्त्री का धर्म है। पतिव्रत के प्रभाव और आप की कृपा से कोई मेरी गति को नहीं रोक सकता। मैं ऐसा ही कर रही हूं। मेरी मर्यादा है। इसके विरुद्ध कुछ भी बोलना आपके लिए शोभनीय नहीं।'

सावित्री के धर्मयुक्त वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने पति के प्राणों के अलावा कुछ भी वरदान मांगने को कहा। सवित्री ने यमराज से सास-ससुर की आंखों की खोई हुई ज्योति व दीर्घायु मांग ली। यमराज 'तथास्तु' कहकर आगे बढ़ गए। फिर भी सावित्री ने यमराज का पीछा नहीं छोड़ा।

वह यमराज के पीछे हो ली। यमराज ने उसे फिर आगे बढ़ने से रोककर वापस जाने के लिए कहा। इस पर सावित्री ने कहा-'धर्मराज मुझे अपने पति देव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं। पति के बिना नारी जीवन की कोई सार्थकता नहीं। हम पति-पत्नी, भिन्न-भिन्न मार्ग कैसे जा सकते हैं? जिस ओर मेरे पति जाएंगे वही मार्ग सुगम है। पति का अनुगमन ही मेरा कर्तव्य है।'

यमराज ने सावित्री के पतिव्रत धर्म की निष्ठा देखकर पुन: वर मांगने को कहा। सावित्री ने अपने ससुर के खोए हुए राज्य की प्राप्ति और सौ भाइयों की बहन होने का वर मांग लिया। यमराज पुन: 'तथास्तु' कहकर आगे बढ़े। परंतु सावित्री अब भी यमराज का पीछा किए जा रही थी। वर देने के बाद यमराज ने पुन: सावित्री को वापस लौट जाने को कहा, लेकिन सावित्री अपने प्रण पर अडिग रही।

तब यमराज ने कहा- 'देवी! यदि तुम्हारे मन मे अब भी कोई कामना है तो कहो, जो मांगोगी वही मिलेगा।' मुंह-मांगा वर पाकर सावित्री ने कहा- 'यदि आप सचमुच मुझ पर प्रसन्न हैं और सच्चे ह्दय से वरदान देना चाहते हैं तो मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का वरदान दें।

' यमराज 'तथास्तु' कहकर आगे बढ़ गए। सावित्री अब भी यमराज के पीछे आ रही थी। यमराज ने पीछे मुड़कर देखा और सावित्री से कहा— 'अब आगे मत बढ़ो। तुम्हें मुंह मांगा वर दे चुका हूं,फिर भी मेरा पीछा क्यों कर रही हो?'

सावित्री नम्रता पूर्वक बोली- 'धर्मराज! आपने मुझे सौ पुत्रों की मां होने का वरदान तो दे दिया, लेकिन क्या पति के बिना मैं संतान को जन्म दे सकती हूं? मुझे मेरा पति वापस मिलना चाहिए तभी मैं आपका वर पूरा कर सकूंगी।'

सावित्री की धर्मनिष्ठा पति भक्ति और शुक्तिपूर्ण वचनों के बंधन में बंधे यमराज ने सत्यवान के जीव को पाश से मुक्त कर दिया। सावित्री को वर देकर यमराज अंतर्ध्यान हो गए।

सावित्री वट वृक्ष के नीचे पहुंची, जहां सत्यवान ने प्राण छोड़े थे। सावित्री ने प्रणाम करके वट वृक्ष की जैसे ही परिक्रमा पूरी की भगवान की कृपा से सत्यवान के मृत शरीर में पुन: जीवन का संचार हो गया और वह जीवित हो उठा। दोनों खुशी पूर्वक घर को लौट आए।

प्रसन्नचित्त सावित्री अपने पति सहित सास-ससुर के पास गई। उनकी नेत्र-ज्योति लौट आई थी। उनके मंत्री उन्हें खोज चुके थे। द्युमत्सेन ने पुन: राज्य सिंहासन संभाल लिया था।

उधर महाराज अश्वसेन सौ पुत्रों के पिता हुए और सावित्री सौ भाइयों की बहन। यमराज के वरदान के प्रभाव से सावित्री सौ पुत्रों की मां बनी। इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए। अपने पति के कुल और पितृकुल दोनों का कल्याण किया। सावित्री और सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे और चारों दिशाएं सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति से गुंज उठीं।


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