उज्जैन के निकट स्थित है निस्वार्थ मित्रता की निशानी
करीब 5000 बरस पुरानी बात है , जब श्रीकृष्ण और सुदामा जी उज्जैन में महान तपस्वी सांदीपनि गुरु के आश्रम में विद्या हासिल कर रहे थे। उस वक्त बाल गोपाल की उम्र मात्र 11 वर्ष थी।
उज्जैन नगरी में एक बहुत ही गरीब लेकिन तपस्वी ब्राह्मणी रहती थी। वो बूढ़ी औरत भीख मांगकर जैसे-तैसे जीवन व्यापन कर रही थी। एक वक्त ऐसा आया कि उसे पांच दिन तक कोई भी भिक्षा नहीं मिली। 😭
ऐसे दिनों में भी उसने संयम से काम लिया।
ईश्वर से कोई शिकायत नहीं की।
वह रोजाना महाकाल का नाम लेकर पानी पीकर सो जाती। किस्मत से छठें दिन शाम को घर लौटते समय उसे दान में कुछ चने मिले। बुढ़िया चने को एक कपड़े में लपेटकर छोटी सी गठरी बनाकर सिरहाने रखकर सो गई उसने इरादा किया कि अगले दिन भगवान का भोग लगाकर वह चने खाऊंगी। 😑
भगवान कृष्ण और भगवान विष्णु में क्या अंतर है ?
लेकिन नियती को कुछ और ही मंजूर था। 🤔
रात में उसकी कुटिया में चोर घुस आए और चने की पोटली को सोने की मुहर से भरी गठरी समझकर चुराकर जाने लगे। खटपट की आवाज सुनकर ब्राह्मणी जाग गई और शोर मचाने लगी। उसकी आवाज सुनकर गांव वाले चोर को पकड़ने के लिए दौड़े तो चोर भागते-भागते मंगलनाथ के आगे अंकपात रोड़ जहाँ संदीपनी का आश्रम था , अंधेरे का फायदा उठाकर छिप गए।
आश्रम में उस वक्त सभी सो रहे थे । सांदीपनि मुनि के आश्रम में ही बाल कृष्ण , बलराम और सुदामा भी विश्राम कर रहे थे।
थोड़ी देर बाद गांव वालों को अपनी ओर आता देख चोर हड़बड़ाहट में चने की पुटकी वहीं आश्रम में छोड़कर भाग निकले।
सुबह होने पर सांदीपनि ऋषि की पत्नी जो गुरुमाता थी आश्रम बुहारते समय उनको वह चने की पोटली मिल गई।
उधर 6 दिन से भूख से बेहाल लाचार ब्राह्मणी को जब पता लगा कि चोर उसके चने चुराकर ले भागे हैं तो उसने दुखी होकर बद्दुआ दे दी कि जो भी उन चनों को खाएगा वह दरिद्र हो जाएगा। चने उसे कभी नहीं फलेंगे।
उस तपस्वी ब्राह्मणी से वैसे भी ईश्वर प्रसन्न था। उसने चने मिलते ही नही खाए बल्कि भोग लगाकर खाने का सोचकर सो गई थी। ईश्वर तो भक्तों की किसी भी अदा पर खुश हो सकते है। ब्राह्मणी के मुँह से निकले शब्द फिर कैसे झूठे होते I
संयोग से उस दिन आश्रम की रसोई में जलाने वाली लकड़ियों को बीनकर लाने की बारी सुदामा और श्रीकृष्ण की थी।
जानिए क्या है विशेषता शिव धनुष पिनाक की
जब वो जंगल में लकड़ी ढूंढने के लिए जाने लगे।
तब गुरुमाता ने वह चने सुदामा को देते हुए कहा कि जब भूख लगे तो तुम दोनों मिल बांटकर खा लेना।
सुदामा भी ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण थे। छोटे थे लेकिन तपस्वी के गुण अन्तर्निहित थे। चने की पोटली हाथ में आते ही उन्हें सारा मामला समझ आ गया।
लकड़ी ढूंढते-ढूंढते उस रोज वो उज्जैन से काफी दूर निकल गए। दोनों आगर रोड़ के करीब नारायणा नामक स्थान पर भटक गए। संध्या हो चली थी ।
स्वर्ण गिरी पर्वत से लकड़ियां तो एकत्रित हो गई थी लेकिन निकलते समय बारिश ने दोनों को करीब जंगल में रुकने पर मजबूर कर दिया। घना जंगल , उस पर घनघोर बारिश। जंगली जानवरों से सुरक्षा भी आवश्यक। सो दोनों एक पेड़ पर चढ़ गए। अचानक दोनों को भूख लगी। एक दूजे का मुँह तांकने लगे। बाल गोपाल जान बूझकर खामोश रहे।😑
अब सुदामा कठिन परीक्षा में उलझ गए।
एक तरफ वो अगर अपने परम मित्र को श्रापित चने देते है तो उन्हें ब्राह्मणी की बद्दुआ का डर सता रहा था दूजी परेशानी भूख से व्याकुल दोस्त का मासूम चेहरा भी देख नही सकते 😭 उनके सामने चने खा भी नहीं सकते। सुदामा ने चुपके से पोटली खोली। निगाहें बचाकर पेड़ के ऊपर की डगाल पर जा बैठे , धीरे धीरे चने चबाने लगे। बाल गोपाल भी ठहरे अंतर्यामी उन्होंने सुदामा की चुटकी ली। 😁
मित्र चोरी छिपके क्या खा रहे हो ? मुझे भी दो। सुदामा ने कहा नहीं कृष्ण वो तो मेरे दाँत ठंड से बज रहे है। 😆 तुम गलत ना समझो 😑 सुदामा ने सोचा कि यदि ये चने उन्होंने कृष्ण को खिला दिए तो अनर्थ हो जाएगा। उन्होंने सोचा, मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकता। मेरे रहते मेरे भगवान दरिद्र हो जाएं, ऐसा नहीं हो सकता।
इसलिए उन्होंने बिना कृष्ण को दिए सारे चने खुद खा लिए। उधर भगवान कृष्ण भी समझ गए थे कि सुदामा ने ऐसा क्यों किया। 64 दिनों बाद श्रीकृष्ण और बलराम की विद्या पूरी हुई। वो मथुरा लौट गए।
सुदामा भी अपने गाँव चले गए। कई बरस गुज़र गए।
फिर कई वर्षों के बाद सुदामा जब कृष्ण से मिलने द्वारका में उनके द्वार पर आए तो उन्होंने अपने इस परम मित्र के पैर धोकर स्वागत किया। गले से लगाकर उनकी सारी दरिद्रता दूर कर दी।
सिर्फ यही नहीं सुदामा के आसपास रहने वालों की कुटियां को भी महलों में बदल दिया ताकि वो सुदामा को देखकर आत्मग्लानि ना महसूस करें। मित्रों ऐसी थी श्रीकृष्ण और सुदामा की दोस्ती। ये दोनों उज्जैन से आगे आगर रोड़ पर जिस जंगल में रुके थे।
उज्जैन से उत्तर दिशा की तरफ 18 किलोमीटर दूर आगर रोड़ पर जैथल नामक गाँव है। जैथल गाँव के रोड़ पर ही कृष्ण सुदामा के मंदिर का बोर्ड लगा है। उल्टे हाथ की तरफ एक रास्ता नारायणी गांव की ओर जाता है।
जिस पेड़ पर दोनों ने सारी रात गुजारी थी , वो वृक्ष भी पूजन योग्य हो गया। श्रद्धालुओं ने उस पेड़ के करीब मंदिर बना दिया जो आज भी है।
5000 हज़ार साल से भी ज्यादा वक्त गुजर गया। द्वापर युग से कलयुग लग गया। राजे बदले , महाराजे बदले। मंदिर भी बना फिर टूटा लेकिन लोगों की स्मृति से इन दोनों की सच्ची दोस्ती की निशानी नहीं मिटी।
गाँव वालों ने दोनों की दोस्ती की निशानी के रूप में नया एक नया मंदिर फिर बना दिया, ये एकमात्र मंदिर है जहाँ श्रीकृष्ण , राधा संग सुदामा भी खड़े नजर आते है।
ईश्वर आराधना के सर्वोत्तम नियम
महाभारत में भी इस घटना का जिक्र है।
भगवतपुराण के 10वे स्कंद में इस जगह का सुबूत मिलता है। यही से 1 किलोमीटर दूर स्वर्ण गिरी पहाड़ भी है ,जहाँ दोनों ने लकड़ियां बटोरी थी। कृष्ण-सुदामा ने एक रात यहां विश्राम किया था।
सुदामा ने चने तो कृष्ण को नहीं दिए लेकिन जगत दुलारे कृष्ण ने सुदामा को जब जोर की प्यास लगी तो उनसे रहा नहीं गया। उनसे लाडले दोस्त की प्यास देखी ना गई।
दोस्त की प्यास बुझाने के लिए बाल गोपाल ने जिस भूमि से मिट्टी हटाई थी, वहां से पानी उबल पड़ा, जिसे आज दामोदर कुंड के नाम से जाना जाता है।
गुरु सांदीपनि ने भगवान कृष्ण को इसी स्थान पर नारायण की उपमा दी थी, इसी वजह से इस स्थान का नाम नारायणा पड़ा। जो अब नारायणा गाँव है।
इंदौर से 60 किलोमीटर दूर सांदीपनि जी का आश्रम था। अब वहां मंदिर है लेकिन उस जमाने की बावड़ी आज भी है।
जय श्रीकृष्ण, जय महाकाल
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