Banner

सीएम जो जनता के प्रचंड बहुमत के बाद भी नहीं बचा पाया अपनी कुर्सी

देश में सीएम रहते चुनाव हारने के कई उदाहरण हैं पर एक ऐसा सीएम जिसके नेतृत्व में चुनाव लड़कर पार्टी ने जनता का भारी बहुमत हासिल किया और वही चुनाव हार जाए ऐसा संभवतः देश के इतिहास में पहली बार हो रहा है. नंदीग्राम सीट से उनकी हार कोई मायने नहीं रखती क्योंकि कोई भी नियम-कानून उनके मुख्यमंत्री बनने की राह में आड़े नहीं आ रहा है. इसके साथ ही नैतिकता का भी कोई सवाल नहीं खड़ा होता क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी ने चुनाव लड़ा और प्रचंड बहुमत हासिल करने में सफल हुई है. वैसे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए विधानसभा का सदस्य बनना भी कोई मुश्किल बात नहीं है. कोई भी विधानसभा सदस्य अपनी सीट से इस्तीफा देकर उन्हें अपनी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का ऑफर दे सकता है.


SBI Interest Rates: भारतीय स्टेट बैंक में है खाता तो आपको भी पता होनी चाहिए ये बात, चेयरमैन ने लिया है एक बड़ा फैसला!

संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार 6 महीने के भीतर उन्हें विधानसभा का सदस्य बनना होगा. जिन राज्यों में विधानसभा के साथ-साथ विधानपरिषद भी होती हैं वहां सीएम बिना जनता से प्रत्यक्ष चुनकर आने के बजाय अप्रत्यक्ष रूप से विधानपऱिषद के लिए भी चुन लिए जाते रहे हैं. पर पश्चिम बंगाल विधानसभा में उच्च सदन न होने के चलते ममता बनर्जी को विधानसभा का चुनाव लड़ना ही होगा. इतिहास में एक बार ऐसा भी हुआ है कि एक सीएम को 6 महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना था पर वो उपचुनाव नहीं जीत सके और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ गई थी.


1971 की है घटना

उत्तर प्रदेश में साल 1970 में ये घटना हुई थी. केंद्र में सत्ताधारी पार्टी का 2 हिस्सों में बंटवारा हो चुका था. एक धड़े का नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं जो उस समय देश की पीएम भी थीं. दूसरे धड़े को कांग्रेस ओ का नाम मिला था जिसके नेता कामराज और मोरारजी देसाई आदि थे. यूपी में चौधरी चरण सिंह की सरकार खतरे में पड़ गई और कांग्रेस ओ के अलावा जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय क्रांति दल की गठबंधन सरकार बनीं. कांग्रेस ओ के नेता टीएन सिंह को विधायक दल का नेता चुना गया. टीएन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया पर वो किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे.



ममता बनर्जी- बंगाल में शानदार जीत, सांप्रदायिक सौहार्द को बचाए रखने की लड़ाई की विजय है

टीएन सिंह को 6 महीने के अंदर विधानसभा का सदस्य बनना था और वो चुनाव हार गए और उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ गया था. टीएन सिंह 18 अक्टूबर 1970 से चार अप्रैल 1971 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे. गोरखनाथ के महंत दिग्विजयनाथ गोरखपुर लोकसभा सीट से एमपी थे. उनके देहांत होने के चलते गोरखपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव होना था. महंत दिग्विजय नाथ के शिष्य महंत अवैद्यनाथ मानीराम विधानसभा सीट से विधायक थे. अवैद्यनाथ को गोरखपुर से लोकसभा सीट का चुनाव लड़ना था, इसलिए मानीराम विधानसभा सीट से उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. मानीराम विधानसभा सीट हिंदू महासभा की सेफ सीट समझी जाती थी इसलिए सीएम टीएन सिंह को मानीराम विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाने को बुलाया गया. मुख्यमंत्री के चुनाव लड़ते ही मानीराम सीट हॉट सीट हो गई.

जब इंटरव्यू में नरगिस को सामने देख नर्वस हो गए थे सुनील दत्त, खतरे में पड़ गई थी नौकरी

सीएम त्रिभुवन नारायण सिंह भी मझे हुए नेता थे, कांग्रेस के सबसे तगड़े सिंडिकेट ग्रुप के साथ थे, इसलिए उन्हें चुनाव हारने का अंदाजा नहीं था. पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री रहते कभी फूलपुर संसदीय क्षेत्र में अपने लिए चुनाव प्रचार करने नहीं आते थे, यही सोचकर त्रिभुवन नारायण सिंह ने भी मानीराम पहुंचकर अपने लिए वोट नहीं मांगने का फैसला किया. इसके साथ ही उनको ये भी अंदाजा नहीं था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद उनके खिलाफ चुनाव प्रचार करने मानीराम आ जाएंगी. इंदिरा गांधी की ओर से कांग्रेस के टिकट पर रामकृष्ण द्विवेद्वी चुनाव लड़ रहे थे. उनका प्रचार करने स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मानीराम पहुंचने वाली थीं. इंदिरा गांधी को सभा करने की राज्य सरकार ने इजाजत नहीं दी और रातों रात खेल बदल गया. इंदिरा गांधी के इंतजार में हजारों की संख्या में जुटी भीड़ ऐसी नाराज हुई कि गोरखनाथ मठ और इंदिरा गांधी के विरोधी सभी नेता मिलकर मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह उर्फ टीएन सिंह को चुनाव हारने से बचा नहीं सके.

स्रोत-TV9

आपका Troopel टेलीग्राम पर भी उपलब्ध है। यहां क्लिक करके आप सब्सक्राइब कर सकते हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ