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महाकवि कालिदास की आराध्य देवी हैं उज्जैन में विराजित माँ गढ़कालिका

 

मध्यप्रदेश की ऐतिहासिक नगरी उज्जैन की हिन्दू धर्म के अंतर्गत एक अलग पहचान है। राजा विक्रमादित्य की यह नगरी अपने आप में अनेकों इतिहास समेटे हुए है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं माँ शक्ति के बारे में, जो उज्जैन नगरी में गढ़कालिका के रूप में विराजमान हैं।
सती के ओष्ठ गिरने से स्थापित हुआ यह शक्तिपीठ 
पुराणों के अनुसार सती के पिता दक्ष प्रजापति ने कनखल यानि हरिद्वार में 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ करवाया था, जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को तो बुलाया, लेकिन अपने जमाता भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। सती द्वारा इसका विरोध करने पर दक्षप्रजापति ने शिव को अपशब्द कहे, जिससे दुखी होकर सती ने यज्ञ में अपनी आहुति दे दी। इस बात से प्रभु शिव इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोलकर तांडव करना शुरू कर दिया और सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रम्हांड में घूमने लगे। 
सती के मृत शरीर के अंग जहाँ जहाँ गिरे, वहाँ वहाँ शक्तिपीठों की स्थापनी की गई। ये शक्तिपीठ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। उज्जैन में ‍शिप्रा नदी के तट के पास स्थित भैरव पर्वत पर माँ भगवती सती के ओष्ठ गिरे थे, जिस कारण यहाँ शक्तिपीठ की स्थापना हुई। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, लेकिन पुराणों में उल्लेख मिलता है।


देवताओं ने किया था माँ को प्रसन्न 
जब देवताओं पर घोर विपत्ति आई और उन्हें कष्टों का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने देवी को प्रसन्न करने के लिए कई जतन किए और देवी ने देवताओं को दानवों पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। इसलिए कहा जाता है कि देवी की आराधना से भक्त को जो महत्वाकांक्षा होती है माता उसे जरूर पूरा करती हैं। माँ को ज्ञान, बुद्धि और सर्वकल्याण की देवी कहा जाता है। प्राचीनकाल में सिद्धपुरूषों ने माता की आराधना कर सिद्धि पाई थी और कालजयी ज्ञान के अनन्त भंडार की रचना की थी। सर्वकल्याण की ये देवी उज्जैन में विराजमान हैं, जिन्हें गढ़कालिका के नाम से जाना जाता है।

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महाभारत काल में हुई थी मंदिर की स्थापना
धर्मशास्त्रों के अनुसार गढ़कालिका का इतिहास बहुत प्राचीन है। ऐसा मान्यता है कि मंदिर की स्थापना महाभारतकाल में की गई थी, लेकिन किंवदति है कि माता की चमत्कारी प्रतिमा सतयुग के काल की है। इस मंदिर में शुंगकाल, ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी, चौथी शताब्दी गुप्तकाल और परमारकालीन दसवी शताब्दी की नींव और प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। मंदिर का जीर्णोद्धार 606 ईस्वी में हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है।
परमार शासन काल में भी इसके जीर्णोद्धार के प्रमाण मिलते हैं। रियासतकाल में सिंधिया राजवंश ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। मंदिर परिसर मे अतिप्राचीन दीपस्तंभ है। इस दीपस्तंभ में 108 दीप विद्यमान हैं, जिन्हें नवरात्रि के दौरान रोशन किया जाता है।
'शक्ति-संगम-तंत्र' में 'अवन्ति संज्ञके देश कालिका तंत्र विष्ठति' का उल्लेख है, जिसका अर्थ है: अवन्तिका नामक देश में माता कालिका स्वरूप में विराजमान है। 'स्कन्दपुराण' में चौबीस मातृकाओं में देवी गढ़कालिका का उल्लेख है। 'त्रिपुरा रहस्य' में देशभर में बारह प्रधान देवीविगृहों का विरूपण किया गया है, जिसमें गढ़कालिका की स्थिति मालवा में दर्शाई गई है। 
कालिदास की आराध्यदेवी हैं माता
किंवदति है कि संस्कृत के महान कवि कालीदास को माँ गढ़कालिका के आशीर्वाद से ही ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। ऐसी मान्यता है कि प्रारंभिक जीवन में कालीदास अनपढ़ और मूर्ख थे। कालीदास एक बार एक पेड़ की जिस डाली पर बैठे थे उसी को काट रहे थे। इस घटना पर उनकी पत्नी विद्योत्तमा ने उन्हें ऐसी फटकार लगाई कि इसके फलस्वरूप तपस्या कर महामूर्खों की श्रेणी में आने वाले कालीदास गढ़कालिका देवी की उपासना कर महाकवि कालिदास बन गए।


इसलिए माँ गढ़कालिका महाकवि कालिदास की आराध्यदेवी मानी जाती हैं। माता के आर्शीवाद से ही कालिदास ने कालजयी ग्रंथों की रचना की थी। कालिदास रचित 'श्यामला दंडक' महाकाली स्त्रोत एक सुंदर रचना है। ऐसा कहा जाता है कि महाकवि के मुख से सबसे पहले यही स्त्रोत प्रकट हुआ था। उज्जैन में आयोजित होने वाले कालिदास समारोह में प्रतिवर्ष माँ कालिका की आराधना की जाती है।

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