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अटल बिहारी के हनुमान और फर्राटेदार अंग्रेजी के महारथी जसवंत सिंह की सबसे बड़ी राजनीतिक कमजोरी क्या रही ?

जसवंत सिंह उन गिने-चुने राजनेताओं में से थे जिन्हें भारत के विदेश, वित्त और रक्षा मंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ था.


विदेश मंत्री के रूप में उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी, 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद दुनिया के सामने भारतीय पक्ष को रखकर उनकी ग़लतफ़हमियाँ दूर करना.

जसवंत सिंह ने इस भूमिका को ठीक तरह से निभाया. जसवंत और अमरीकी उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टालबॉट के बीच दो सालों के बीच सात देशों और तीन महाद्वीपों में 14 बार मुलाक़ात हुई. एक बार तो दोनों क्रिसमस की सुबह मिले ताकि उनकी बातचीत का 'मोमेंटम' बना रहे.

बाद में टालबॉट ने अपनी किताब 'इंगेजिंग इंडिया डिप्लॉमेसी, डेमोक्रेसी एंड द बॉम्ब' में लिखा, "जसवंत दुनिया के उन प्रभावशाली इंसानों में से हैं जिनसे मुझे मिलने का मौक़ा मिला है. उनकी सत्यनिष्ठता चट्टान की तरह है. उन्होंने हमेशा मुझसे बहुत साफ़गोई से बात की है."

"भारत के दृष्टिकोण को उनसे ज़्यादा बारीकी से मेरे सामने किसी ने नहीं रखा. उनके ही प्रयासों की वजह से ही राष्ट्रपति क्लिन्टन की भारत यात्रा संभव हो सकी थी."दिलचस्प बात ये है कि पूरी दुनिया में अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के लिए मशहूर जसवंत सिंह ने जब इस कॉलेज में दाख़िला लिया तो उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी.

जसवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा 'अ कॉल टू ऑनर' में लिखा, "अंग्रेज़ी न आना मेरे लिए बहुत शर्म की बात थी. लेकिन इसे सीखने में किसी की मदद लेना मेरी शान के ख़िलाफ़ था. इसलिए मैंने तय किया कि मैं ख़ुद ही न सिर्फ़ इस भाषा को सीखूंगा बल्कि इसमें पारंगत भी बनूंगा."

1966 में जसवंत सिंह ने 9 साल की नौकरी के बाद सेना के अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. कुछ समय के लिए वो जोधपुर के महाराजा गज सिंह के निजी सचिव रहे. 1980 में वो बीजेपी के टिकट पर पहली बार राज्य सभा के लिए चुने गए.

1996 में वो वाजपेयी की 13 दिन की सरकार में वित्त मंत्री बनाए गए. जब वाजपेयी दोबारा सत्ता में आए तो वो जसवंत सिंह को फिर वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन आरएसएस ने उनके मंत्री बनाए जाने का विरोध किया. वाजपेयी को इससे बहुत दुख पहुंचा लेकिन उन्होंने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया.

उस समय जसवंत सिंह से पूछा गया था कि क्या आरएसएस द्वारा उन्हें मंत्री बनाए जाने का विरोध करने से आप निराश हुए हैं, तो जसवंत सिंह का जवाब था, "दुनिया उन लोगों की क़ब्रों से भरी पड़ी है जो ये समझते थे कि उनके बिना दुनिया का काम नहीं चल सकता है. मेरा मानना है कि मेरे बिना इस देश का काम चल सकता है."

कुछ दिनों बाद वाजपेयी ने उन्हें विदेश मंत्री बना दिया और वो 2002 तक भारत के विदेश मंत्री रहे. इसके बाद उन्हें दोबारा वित्त मंत्री बनाया गया. आडवाणी की रथ यात्रा और अयोध्या आंदोलन में उनकी कभी दिलचस्पी नहीं रही. भारतीय जनता पार्टी के एक वर्ग ने अपने आप को कभी भी जसवंत सिंह के साथ सहज नहीं महसूस किया.

लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और भैरों सिंह शेखावत जैसे कुछ ख़ैर- ख़्वाहों की वजह से वो न सिर्फ़ पार्टी में बने रहे बल्कि फले फूले भी. कहा जाता है कि वाजपेयी उनकी अंग्रेज़ी भाषा, ख़ासकर क्वींस इंग्लिश पर उनकी महारत के कारण उनके मुरीद थे. भैरों सिंह शेख़ावत के साथ उनका ठाकुर और मिट्टी का 'कनेक्शन' था.

अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जसवंत सिंह

वाजपेयी से नज़दीकी

जो लोग जसवंत सिंह को नज़दीक से जानते हैं, उनका मानना है कि वो बहुत ही सुसंस्कृत, ज्ञानी और लचीले शख़्स थे.

बात करने की जो कला उनके पास थी, कम लोगों के पास थी. वो बहुत सोच-समझकर ही कुछ कहते थे.

जन-राजनीति से कोई सरोकार नहीं

जसवंत सिंह के राजनीतिक जीवन की एक ख़ामी ये थी कि वो अपने आप को जन राजनीति के साँचे में कभी नहीं ढाल पाए.

उन्होंने अपने क्षेत्र को 'नर्स' करने की कला कभी नहीं सीखी. 1989 में उन्होंने जोधपुर और 1991 और 1996 में चित्तौड़गढ़ और फिर 2009 में दार्जिलिंग में जीत ज़रूर दर्ज की लेकिन उनके मतदाताओं को हमेशा शिकायत रही कि जीतने के बाद उन्होंने उनकी सुध नहीं ली.

और वो लेते भी कैसे. वो तो अपने नेता अटल बिहारी वाजपेयी के 'ट्रबल शूटर' के रूप में कभी जयललिता को मनाने निकल रहे थे तो कभी जनरल मुशर्रफ़ के चेक मेट करने की रणनीति बना रहे थे.

यही कारण है कि अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें मज़ाक में अपना 'हनुमान' कहते थे.


source :BBC Hindi

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