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जो झुक कर उठी तो खता बन गयी, और उठ कर झुकी तो अदा बन गयी…

 

उस्ताद फारुख फतेह अली खान साहब का एक शेर..”नज़र जो उठी तो दुआ बन गयी, नज़र जो झुकी तो हया बन गयी,
जो झुक कर उठी तो खता बन गयी, और उठ कर झुकी तो अदा बन गयी.” आज के जमाने पर पूरी तरह से सटीक बैठता है.

इस शेर को क्यों आज हम अपने समाज में मुक़्क़मल नहीं कर देते. हमें इन्ही नज़रों के साथ क्यों नहीं रह सकते, हम इन्ही नज़रों के साथ अपनी माँ-बहन- पड़ोसी अपनी दोस्त को क्यों नहीं देख सकते.

क्यों हमारी नज़रे एक सी नहीं हो सकती, क्यों ये नज़रे पाक साफ़ नहीं हो सकती ? क्यों हम हर महिला को एक सा दर्जा नहीं दें सकते है. एक सी इज़्ज़त नहीं कर सकते. क्यों हमारी नज़रों में अलग-अलग समय अलग अलग लोगों के लिए भेद होता है.

घर के बाहर अलग नज़र होती है और घर के अंदर वह नज़र अलग क्यों हो जाती है. ऐसा क्यों होता है ? क्यों हम इस शेर को अपनी दुनिया में नहीं उतार सकते. क्या हम में संस्कारों की कमी है या फिर हमने अपने ज़मीर को इतना कमजोर बना दिया है कि हम संस्कारों के रास्ते पर चल नहीं सकते.

अगर नज़र उठे तो वो दुआ बन जाए.. य लाइन मुकम्मल होनी चाहिए हर औरत के साथ सिर्फ घर तक नहीं सिमटी रहनी चाहिए.
नज़र जो झुकी तो हया बन गयी…ये लाइन से सबक उन लड़कों को लेना है जो चौराहों पर बैठे रहते है और आने जाने वाली हर लड़की जो नज़रे झुका कर चलती है, उस पर कमेंट पास करते है.

लड़कियों पर कमेंट उनके कपड़ों पर कमेंट उनके चलने पर कमेंट ऐसे कमेंट और कमेंट करने वालों, दोनों पर ही जरुरत है पाबंदी लगाने की. हमें इन दोनों को ही रोकना होगा.

याद रखिए पुराणों में भी औरत को न सिर्फ इज़्ज़त दी गई है, बल्कि उसे सृष्टि का सृजनकर्ता भी कहा गया है. सृजनकर्ता मतलब जननी, जो निर्माण करती है. प्रकृति यह शब्द भी स्त्रीलिंग है. प्रकृति जिसने हमें जीवन दिया, अन्न, जल, अग्नि, वायु…….और भी बहुत कुछ…

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