काला पानी शायद ये नाम आज कई लोगों को नया सा लगे, लेकिन जिन लोगों ने इस नाम को जाना है या जिसके पूर्वजों ने इसे करीब से देखा है, आज भी उनकी रूहे इसके एक ख्याल से कांप उठती है. काला पानी की सजा जिसने जीते-जी लोगों को नर्क दिखलाया. यहाँ की सजा से लोहे का आदमी भी मोम की तरह पिघल कर बिखर जाता था.
आखिर ऐसा क्या था इस सजा में जो आज तक इसकी चर्चा हर जगह होती है. क्यों इसे सबसे क्रूर सजा में गिना जाता है. हम आपको बताते है कालापानी सजा का सफ़ेद सच.
कालापानी सजा को भारत में अंग्रेज़ों ने शुरू किया था. अंडमान-निकोबार की सेल्यूलर जेल में. अगर इस जेल को आज भी कोई करीब से देखें तो अन्दाज़ा लगा सकता है, इसमें रहना कितना मुश्किल होता होगा, और इन जेलों में खासकर रखा जाता था. भारतीय स्वतंत्रता सैनानियों को.
इस जेल को सेल्युलर नाम भी इसलिए दिया गया था, क्योंकि यहां एक कैदी से दूसरे से बिलकुल अलग रखा जाता था. सेल्यूलर जेल का निर्माण 1896 में प्रारंभ हुआ और 1906 में यह बनकर तैयार हुई.
अंडमान के पोर्ट ब्लेयर सिटी में बनी इस जेल की दीवारे इतनी छोटी थी कि कोई भी आसानी से इसके पार जा सकता था, लेकिन यह स्थान चारों ओर से गहरे समुद्री पानी से घिरा हुआ है, इस वजह से चाह कर भी कोई यहाँ से नहीं भागता था.
यहां कुल सात शाखाओं में 698 कोठरियां बनी थीं, इनमें से किसी में भी कोई शयनकक्ष नहीं था. प्रत्येक कोठरी 15×8 फीट की थी. एक सेल का कैदी दूसरी सेल के कैदी से किसी भी तरह संपर्क नहीं कर पाता था.
अंग्रेज़ कालापानी में अधिकाश भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ही रखते थे. विनायक दामोदर सावरकर, भाई परमानंद, मौलाना फजल-ए-हक खैराबादी, मौलाना अहमदउल्ला, मौवली अब्दुल रहीम सादिकपुरी, योगेंद्र शुक्ला, बटुकेश्वर दत्त, बाबूराव सावरकर, शदन चंद्र चटर्जी, डॉ. दीवन सिंह,सोहन सिंह, वमन राव जोशी, नंद गोपाल आदि थे.
इस जेल को 1969 में राष्ट्रीय स्मारक बना दिया गया. भारत सरकार द्वारा 1963 में यहां गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल खोला गया. वर्तमान में यह 500 बिस्तरों वाला अस्पताल है.
यह थी उस खौफनाक जेल की कहानी, जिसे धरती का नर्क कहा जाए तो भी कम ही है. आज ये जेल और उसकी दीवारे चीख-चीख कर बताती है कि उस दौर में अंग्रेज़ों ने भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर कितना अत्याचार किया है.
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